Saturday, November 1, 2008

धूप की खुली किताब

खुली किताब के
पहले पन्ने पर
बचपन के आँगन में
तैर गयी
अनखिली धूप।

खुली किताब के
दूसरे पन्ने पर
यौवन के आँगन में
फिसल गयी मदमाती धूप।

खुली किताब के
तीसरे पन्ने पर
बुदापे के आँगन में
सिसक गयी मुरझाती धूप।

.... और फिर
धूप की खुली किताब
बंद हो गयी।

Tuesday, October 28, 2008

कुछ कवितायें

१ मैं चाहता हूं
धूप चीर दे मेरे शरीर को भीतर तक
वहां तक,
जहां तक
मैं स्वयं अनुभव नहीं कर सकता
२ मैं तुम्हारे रूप का एक अंश
भर लेना चाहता था अपनी जेबों में
पर यह क्या!
अभी तो देखा भर भी नहीं था
कि मेरी जेबों से
छलक पड़ा
तुम्हारे रूप का संसार।
३ तुम मुझे प्रेम करती रहना
तुम्हारा प्रेम मुझे बल देता है
बहुत भीतर तक
और 'प्रेम' के विरुद्ध मेरा आन्दोलन
और शक्तिवान हो जाता है।

Sunday, October 26, 2008

दीप संध्या

नयनों के उनके में दीपक जलाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

सजनी की पलकों का हल्का लजाना
अधरों को दातों के नीचे दबाना
है जीवन का एहसास खुशियाँ मनाना
अधरों पर अंकित में हर गीत गाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

स्वप्नों के रंगों में चाहत सजन की
पलकों के आँगन में महके सुमन की
प्यासी है नदिया प्यासे नयन की
मंजुल छवि से मैं आँचल उठाऊं,
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

नयन उनके मासूम चंचल दुलारे
अनारों के दानों से झिलमिल ओ' प्यारे
के आँचल में जैंसे जड़े हों सितारे
उन्हें मन के मन्दिर में अपने सजाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

डॉ हरीश अरोड़ा

Tuesday, October 21, 2008

मधुर दिवाली

मधुर मधुर मेरे दीपक से
नेह रूप की जली दिवाली
मंजुल मंजुल सौम्य किरण बन
पलकों के तल पली दिवाली।

कंचन कंचन जल से भीगी
सजी हुई दीपों की पांती
जीवन में खुशियाँ भर लाई
उसके अमर रूप की बाती
झनक झनक कोमल पग धर तल
झूम झूम कर चली दिवाली।

मधुर सुधा रस से है छलकी
उसके निर्झर तन की काया
अधरों के कम्पन से लिपटी
प्रेम सिक्त दीपक की छाया
मन में हंसती ओ' इठलाती
मेरा मन छल चली दिवाली।

Thursday, September 11, 2008

ऐ दोस्त!

ऐ दोस्त!

चाहता हूं तुम भोले ही रहो -

उन तितलियों की तरह

जो फूलों की रंगीनियों से बुन लेती हैं

अपने परों को

उन नन्हें पंछियों की तरह

जिन्हें सुरों की पहचान नहीं

फिर भी उनकी किलकारियां

सहेज लेती हैं नए राग

उन छोटे बादलों की तरह

जो सूरज को छिपा लेते हैं

पल भर को अपने अंक में

और फिर हंसकर, तालियाँ बजाकर

अगले पल उन्हें छोड़ देते हैं.

तुम्हारा यही भोलापन मुझे भाता है

जब वह हँसता है

तब मेरे भीतर लहरा जाती है

रौशनी की नदी

हौले-हौले

झरनों से बहते संगीत की तरह.

दोस्त, तुम ऐंसे ही रहना

आँगन की धरती पर

घुटनों के बल डगमगाकर चलते

बचपन की तरह.

ऐ दोस्त!

तुम भोले ही रहना.

अपरिचित

तुमसे परिचय
जैंसे नन्ही सी चिड़िया ने आँख खोली
पल भर चहचहाई
और फिर
फुर्र का उड़ गयी
लगा ---
वसंत लौट आया.
जिनसे सीपियों ने ली अंगड़ाई
मोतियों ने खोले अपने पंख
और बिखेर दिए
लहरों पर अनेक इन्द्रधनुष.
जैंसे परियों कि बरात
नन्ही-सी बिटिया कि हंसी
कलियों का इठलाना
सावन का बहकाना
अनछुवे पलों का महकना
और कमसिन सपनों का लजाना
और .... और .... और ....

सच कितनी सहज हो तुम
फिर भी क्यों हो
अभी तक मेरे लिए अपरिचित.

Saturday, July 19, 2008

उम्र भर जिस घर के जल जाने का मुझको डर रहा
तुमने उस ही कागजी घर में मुझे ठहरा दिया
जिसकी नजरों में चमक और है लबों पे सुर्खियाँ
उसके दिल पर ज़िंदगी दे ने घाव इक गहरा दिया
मुफिलिसी में भी खुदा ने ज़ुल्म उस पर ये किया
खूबसूरत जिस्म देकर दाग इक गहरा दिया
फूल की खुशबूं उसे कब ज़िंदगी दे पायेगी
जिसपे शाहे-वक्त ने है मौत का पहरा दिया
मेरे घर की मुफलिसी ने काम ये अच्छा किया
हादसों के इस शहर में नींद का सहरा दिया

Friday, July 11, 2008

उन दोस्तों से मिलना

उन दोस्तों से मिलना यारों संभल संभल के
जीते हैं जिंदगी जो चेहरे बदल बदल के
अब किसको भला फुरसत बेदर्द ज़माने की
इस शहर के तो नायब चलते फिसल फिसल के
जिसने कभी न पाया मलिकाए मोहब्बत को
वो किस तरह से कह दे शीरां ग़ज़ल ग़ज़ल के
मत पूछ उससे जालिम चेहरे पे सलवटें क्यूँ
काटी हो जिसने रातें करवट बदल बदल के

Tuesday, July 8, 2008

प्रेम

प्रेम में बंधन नहीं हैं
तुम उसे एहसास के नन्हें सजीले पंख देकर मुक्त कर दो
वह उडेगा
क्षण भर उडेगा
और फिर से लोट कर
स्नेह के बंधन तुम्हारे चूम लेगा।
देह के लघु खंड तो क्षण की शिला हैं
छू नहीं सकते
स्थिर हैं
ये तुम्हारे प्रेम की नव सर्जना में गदगद रहेंगे
मूक अभिनन्दन करेंगे
मूक अभिनन्दन करेंगे