Tuesday, October 28, 2008

कुछ कवितायें

१ मैं चाहता हूं
धूप चीर दे मेरे शरीर को भीतर तक
वहां तक,
जहां तक
मैं स्वयं अनुभव नहीं कर सकता
२ मैं तुम्हारे रूप का एक अंश
भर लेना चाहता था अपनी जेबों में
पर यह क्या!
अभी तो देखा भर भी नहीं था
कि मेरी जेबों से
छलक पड़ा
तुम्हारे रूप का संसार।
३ तुम मुझे प्रेम करती रहना
तुम्हारा प्रेम मुझे बल देता है
बहुत भीतर तक
और 'प्रेम' के विरुद्ध मेरा आन्दोलन
और शक्तिवान हो जाता है।

Sunday, October 26, 2008

दीप संध्या

नयनों के उनके में दीपक जलाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

सजनी की पलकों का हल्का लजाना
अधरों को दातों के नीचे दबाना
है जीवन का एहसास खुशियाँ मनाना
अधरों पर अंकित में हर गीत गाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

स्वप्नों के रंगों में चाहत सजन की
पलकों के आँगन में महके सुमन की
प्यासी है नदिया प्यासे नयन की
मंजुल छवि से मैं आँचल उठाऊं,
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

नयन उनके मासूम चंचल दुलारे
अनारों के दानों से झिलमिल ओ' प्यारे
के आँचल में जैंसे जड़े हों सितारे
उन्हें मन के मन्दिर में अपने सजाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

डॉ हरीश अरोड़ा

Tuesday, October 21, 2008

मधुर दिवाली

मधुर मधुर मेरे दीपक से
नेह रूप की जली दिवाली
मंजुल मंजुल सौम्य किरण बन
पलकों के तल पली दिवाली।

कंचन कंचन जल से भीगी
सजी हुई दीपों की पांती
जीवन में खुशियाँ भर लाई
उसके अमर रूप की बाती
झनक झनक कोमल पग धर तल
झूम झूम कर चली दिवाली।

मधुर सुधा रस से है छलकी
उसके निर्झर तन की काया
अधरों के कम्पन से लिपटी
प्रेम सिक्त दीपक की छाया
मन में हंसती ओ' इठलाती
मेरा मन छल चली दिवाली।