Saturday, July 19, 2008

उम्र भर जिस घर के जल जाने का मुझको डर रहा
तुमने उस ही कागजी घर में मुझे ठहरा दिया
जिसकी नजरों में चमक और है लबों पे सुर्खियाँ
उसके दिल पर ज़िंदगी दे ने घाव इक गहरा दिया
मुफिलिसी में भी खुदा ने ज़ुल्म उस पर ये किया
खूबसूरत जिस्म देकर दाग इक गहरा दिया
फूल की खुशबूं उसे कब ज़िंदगी दे पायेगी
जिसपे शाहे-वक्त ने है मौत का पहरा दिया
मेरे घर की मुफलिसी ने काम ये अच्छा किया
हादसों के इस शहर में नींद का सहरा दिया

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