Sunday, October 26, 2008

दीप संध्या

नयनों के उनके में दीपक जलाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

सजनी की पलकों का हल्का लजाना
अधरों को दातों के नीचे दबाना
है जीवन का एहसास खुशियाँ मनाना
अधरों पर अंकित में हर गीत गाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

स्वप्नों के रंगों में चाहत सजन की
पलकों के आँगन में महके सुमन की
प्यासी है नदिया प्यासे नयन की
मंजुल छवि से मैं आँचल उठाऊं,
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

नयन उनके मासूम चंचल दुलारे
अनारों के दानों से झिलमिल ओ' प्यारे
के आँचल में जैंसे जड़े हों सितारे
उन्हें मन के मन्दिर में अपने सजाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

डॉ हरीश अरोड़ा

No comments: